वीतराग सर्वज्ञ जिन, जिनवाणी को ध्याय |
लिखने का साहस करूँ, चालीसा सिर-नाय ||१||

देहरे के श्री चंद्र को, पूजौं मन-वच-काय ||
ऋद्धि-सिद्धि मंगल करें, विघ्न दूर हो जाय ||२||

जय श्री चंद्र दया के सागर, देहरेवाले ज्ञान-उजागर ||३||
शांति-छवि मूरति अति-प्यारी, भेष-दिगम्बर धारा भारी ||४||
नासा पर है दृष्टि तुम्हारी, मोहनी-मूरति कितनी प्यारी |५||
देवों के तुम देव कहावो, कष्ट भक्त के दूर हटावो ||६||
समंतभद्र मुनिवर ने ध्याया, पिंडी फटी दर्श तुम पाया ||७||
तुम जग में सर्वज्ञ कहावो, अष्टम-तीर्थंकर कहलावो ||८||
महासेन के राजदुलारे, मात सुलक्षणा के हो प्यारे ||९||
चंद्रपुरी नगरी अतिनामी, जन्म लिया चंद्र-प्रभ स्वामी ||१०||
पौष-वदी-ग्यारस को जन्मे, नर-नारी हरषे तब मन में ||११||
काम-क्रोध-तृष्णा दु:खकारी, त्याग सुखद मुनिदीक्षा-धारी ||१२||
फाल्गुन-वदी-सप्तमी भार्इ, केवलज्ञान हुआ सुखदार्इ ||१३||
फिर सम्मेद-शिखर पर जाके, मोक्ष गये प्रभु आप वहाँ से ||१४||
लोभ-मोह और छोड़ी माया, तुमने मान-कषाय नसाया ||१५||
रागी नहीं नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित-उपदेशी ||१६||
पंचम-काल महा दु:खदार्इ, धर्म-कर्म भूले सब भार्इ ||१७||
अलवर-प्रांत में नगर तिजारा, होय जहाँ पर दर्शन प्यारा ||१८||
उत्तर-दिशि में देहरा-माँहीं, वहाँ आकर प्रभुता प्रगटार्इ ||१९||
सावन सुदि दशमी शुभ नामी, प्रकट भये त्रिभुवन के स्वामी ||२०||
चिहन चंद्र का लख नर-नारी, चंद्रप्रभ की मूरती मानी ||२१||
मूर्ति आपकी अति-उजियाली, लगता हीरा भी है जाली ||२२||
अतिशय चंद्रप्रभ का भारी, सुनकर आते यात्री भारी ||२३||
फाल्गुन-सुदी-सप्तमी प्यारी, जुड़ता है मेला यहाँ भारी ||२४||
कहलाने को तो शशिधर हो, तेज-पुंज रवि से बढ़कर हो ||२५||
नाम तुम्हारा जग में साँचा, ध्यावत भागत भूत-पिशाचा ||२६||
राक्षस-भूत-प्रेत सब भागें, तुम सुमिरत भय कभी न लागे ||२७||
कीर्ति तुम्हारी है अतिभारी, गुण गाते नित नर और नारी ||२८||
जिस पर होती कृपा तुम्हारी, संकट झट कटता है भारी ||२९||
जो भी जैसी आश लगाता, पूरी उसे तुरत कर पाता ||३०||
दु:खिया दर पर जो आते हैं, संकट सब खोकर जाते हैं ||३१||
खुला सभी हित प्रभु-द्वार है, चमत्कार को नमस्कार है ||३२||
अंधा भी यदि ध्यान लगावे, उसके नेत्र शीघ्र खुल जावें ||३३||
बहरा भी सुनने लग जावे, पगले का पागलपन जावे ||३४||
अखंड-ज्योति का घृत जो लगावे, संकट उसका सब कट जावे ||३५||
चरणों की रज अति-सुखकारी, दु:ख-दरिद्र सब नाशनहारी ||३६||
चालीसा जो मन से ध्यावे,पुत्र-पौत्र सब सम्पति पावे ||३७||
पार करो दु:खियों की नैया, स्वामी तुम बिन नहीं खिवैया ||३८||
प्रभु मैं तुम से कुछ नहिं चाहूँ, दर्श तिहारा निश-दिन पाऊँ ||३९||

करूँ वंदना आपकी, श्री चंद्रप्रभ जिनराज |
जंगल में मंगल कियो, रखो ‘सुरेश’ की लाज ||४०||

शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूँ प्रणाम ।

उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम। ।

सर्व साधु और सरस्वती, जिन-मंदिर सुखकार ।

अहिच्छत्र और पार्श्व को, मन-मंदिर में धार ।।

 

पार्श्वनाथ जगत्-हितकारी, हो स्वामी तुम व्रत के धारी ।

सुर-नर-असुर करें तुम सेवा, तुम ही सब देवन के देवा ।।१।।

तुमसे करम-शत्रु भी हारा, तुम कीना जग का निस्तारा ।

अश्वसैन के राजदुलारे, वामा की आँखों के तारे ।।२।।

काशी जी के स्वामी कहाये, सारी परजा मौज उड़ाये ।

इक दिन सब मित्रों को लेके, सैर करन को वन में पहुँचे ।।३।।

हाथी पर कसकर अम्बारी, इक जगंल में गर्इ सवारी ।

एक तपस्वी देख वहाँ पर, उससे बोले वचन सुनाकर ।।४।।

तपसी! तुम क्यों पाप कमाते, इस लक्कड़ में जीव जलाते ।

तपसी तभी कुदाल उठाया, उस लक्कड़ को चीर गिराया ।।५।।

निकले नाग-नागनी कारे, मरने के थे निकट बिचारे ।

रहम प्रभु के दिल में आया, तभी मंत्र-नवकार सुनाया ।।६।।

मरकर वो पाताल सिधाये, पद्मावति-धरणेन्द्र कहाये ।

तपसी मरकर देव कहाया, नाम ‘कमठ’ ग्रन्थों में गाया ।।७।।

एक समय श्री पारस स्वामी, राज छोड़कर वन की ठानी ।

तप करते थे ध्यान लगाये, इक-दिन ‘कमठ’ वहाँ पर आये ।।८।।

फौरन ही प्रभु को पहिचाना, बदला लेना दिल में ठाना ।

बहुत अधिक बारिश बरसार्इ, बादल गरजे बिजली गिरार्इ ।।९।।

बहुत अधिक पत्थर बरसाये, स्वामी तन को नहीं हिलाये ।

पद्मावती-धरणेन्द्र भी आए, प्रभु की सेवा में चित लाए ।।१०।।

धरणेन्द्र ने फन फैलाया, प्रभु के सिर पर छत्र बनाया ।

पद्मावति ने फन फैलाया, उस पर स्वामी को बैठाया ।।११।।

कर्मनाश प्रभु ज्ञान उपाया, समोसरण देवेन्द्र रचाया ।

यही जगह ‘अहिच्छत्र‘ कहाये, पात्रकेशरी जहाँ पर आये ।।१२।।

शिष्य पाँच सौ संग विद्वाना, जिनको जाने सकल जहाना ।

पार्श्वनाथ का दर्शन पाया, सबने जैन-धरम अपनाया ।।१३।।

‘अहिच्छत्र‘ श्री सुन्दर नगरी, जहाँ सुखी थी परजा सगरी ।

राजा श्री वसुपाल कहाये, वो इक जिन-मंदिर बनवाये ।।१४।।

प्रतिमा पर पालिश करवाया, फौरन इक मिस्त्री बुलवाया ।

वह मिस्तरी माँस था खाता, इससे पालिश था गिर जाता ।।१५।।

मुनि ने उसे उपाय बताया, पारस-दर्शन-व्रत दिलवाया ।

मिस्त्री ने व्रत-पालन कीना, फौरन ही रंग चढ़ा नवीना ।।१६।।

गदर सतावन का किस्सा है, इक माली का यों लिक्खा है ।

वह माली प्रतिमा को लेकर, झट छुप गया कुएँ के अंदर ।।१७।।

उस पानी का अतिशय-भारी, दूर होय सारी बीमारी ।

जो अहिच्छत्र हृदय से ध्यावे, सो नर उत्तम-पदवी पावे ।।१८।।

पुत्र-संपदा की बढ़ती हो, पापों की इकदम घटती हो ।

है तहसील आँवला भारी, स्टेशन पर मिले सवारी ।।१९।।

रामनगर इक ग्राम बराबर, जिसको जाने सब नारी-नर ।

चालीसे को ‘चंद्र’ बनाये, हाथ जोड़कर शीश नवाये ।।२०।।

 

नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन ।

खेय सुगंध अपार, अहिच्छत्र में आय के ।।

होय कुबेर-समान, जन्म-दरिद्री होय जो ।

जिसके नहिं संतान, नाम-वंश जग में चले ।।

शीश नवा अरिहन्त को, सिद्धन करूँ प्रणाम ।

उपाध्याय आचार्य का, ले सुखकारी नाम ।।१।।

सर्व साधु और सरस्वती, जिन मंदिर सुखकार ।

महावीर भगवान को, मन मंदिर में धर ।।२।।

 

जय महावीर दयालु स्वामी, वीर प्रभु तुम जग में नामी ।।३।।

वर्धमान है नाम तुम्हारा, लगे हृदय को प्यारा प्यारा ।।४।।

शांति छवि और मोहनी मूरत, शांत हँसीली सोहनी सूरत ।।५।।

तुमने वेष दिगम्बर धरा, कर्म शत्रु भी तुम से हारा ।।६।।

क्रोध मान और लोभ भगाया, माया-मोह तुमसे डर खाया ।।७।।

तू सर्वज्ञ सर्व का ज्ञाता, तुझको दुनिया से क्या नाता ।।८।।

तुझमें नहीं राग और द्वेष, वीतराग तू हितोपदेश ।।९।।

तेरा नाम जगत में सच्चा, जिसको जाने बच्चा-बच्चा ।।१०।।

भूत प्रेत तुम से भय खावें, व्यंतर-राक्षस सब भग जावें ।।११।।

महा व्याध मारी न सतावे, महा विकराल काल डर खावें ।।१२।।

काला नाग होय फन धारी, या हो शेर भयंकर भारी ।।१३।।

न हो कोर्इ बचाने वाला, स्वामी तुम्हीं करो प्रतिपाला ।।१४।।

अगनि दावानल सुलग रही हो, तेज हवा से भड़क रही हो ।।१५।।

नाम तुम्हारा सब दुख खोवे, आग एकदम ठण्डी होवे ।।१६।।

हिंसामय था जग विस्तारा, तब तुमने कीना निस्तारा ।।१७।।

जन्म लिया कुंडलपुर नगरी, हुर्इ सुखी तब प्रजा सगरी ।।१८।।

सिद्धारथ जी पिता तुम्हारे, ​त्रिशला के आँखों के तारे ।।१९।।

छोड़ सभी झंझट संसारी, स्वामी हुए बाल ब्रह्मचारी ।।२०।।

पंचम काल महा दुखदार्इ, चाँदनपुर महिमा दिखलार्इ ।।२१।।

टीले में अतिशय दिखलाया, एक गाय का दूध गिराया ।।२२।।

सोच हुआ मन में ग्वाले के, पहुँचा एक फावड़ा लेके ।।२३।।

सारा टीला खोद गिराया, तब तुमने दर्शन दिखलाया ।।२४।।

जोधराज को दुख ने घेरा, उसने नाम जपा तब तेरा ।।२५।।

ठण्डा हुआ तोप का गोला, तब सबने जयकारा बोला ।।२६।।

मंत्री ने मंदिर बनवाया, राजा ने भी दरब लगाया ।।२७।।

बड़ी धर्मशाला बनवार्इ, तुमको लाने को ठहरार्इ ।।२८।।

तुमने तोड़ी बीसों गाड़ी, पहिया मसका नहीं अगाड़ी ।।२९।।

ग्वाले ने जो हाथ लगाया, फिर तो रथ चलता ही पाया ।।३०।।

पहिले दिन बैशाख बदी के, रथ जाता है तीर नदी के ।।३१।।

मीना गूजर सब ही आते, नाच-कूद सब चित्त उमगाते ।।३२।।

स्वामी तुमने प्रेम निभाया, ग्वाले का तुम मान बढ़ाया ।।३३।।

हाथ लगे ग्वाले का जब ही, स्वामी रथ चलता है तब ही ।।३४।।

मेरी है टूटी सी नैया, तुम बिन कोर्इ नहीं खिवैया ।।३५।।

मुझ पर स्वामी जरा कृपा कर, मैं हूँ प्रभू तुम्हारा चाकर ।।३६।।

तुमसे मैं अरु कछु नहीं चाहूँ, जन्म-जन्म तेरे दर्शन पाउँफ ।।३७।।

चालीसे को ‘चन्द्र’ बनावें, वीर प्रभू को शीश नवावें ।।३८।।

 

नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन ।

खेय सुगंध अपार, वर्धमान के सामने ।।३९।।

होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो ।

जिसके नहिं संतान, नाम वश जग में चले ।।४०।।