Namokar Mantra Images - Navkar Mantra Picture - नवकार मंत्र - णमोकार मंत्र Wallpapers

Namokar Mantra Picture – Navkar Mantra Wallpaper 

नवकार मंत्र (णमोकार मंत्र)

ॐ नमो अरिहंताणं ।

ॐ नमो सिद्धाणं ।

ॐ नमो आयरियाणं ।

ॐ नमो उवज्झायाणं ।

ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं ।

ऐसो पंच नमोक्कारो सव्व पावप्पणासणो ।

मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलं ।

 

 

(दोहा)

वंदूं पाँचों परम-गुरु, चौबीसों जिनराज |
करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धि-करन के काज ||१||

(सखी छन्द)

सुनिये जिन! अरज हमारी, हम दोष किये अति-भारी |
तिनकी अब निवर्त्ति-काजा, तुम सरन लही जिनराजा ||२||

इक-बे-ते-चउइंद्री वा, मनरहित-सहित जे जीवा |
तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदई हो घात विचारी ||३||

समरंभ-समारंभ-आरंभ, मन-वच-तन कीने प्रारंभ |
कृत-कारित-मोदन करिके, क्रोधादि-चतुष्टय धरिके ||४||

शत-आठ जु इमि भेदनते, अघ कीने परिछेदनते |
तिनकी कहूँ को-लों कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी ||५||

विपरीत एकांत-विनय के, संशय-अज्ञान कुनय के |
वश होय घोर अघ कीने, वचतें नहिं जायँ कहीने ||६||

कुगुरुन की सेवा कीनी, केवल अदया-करि भीनी |
या-विधि मिथ्यात भ्रमायो, चहुँगति-मधि दोष उपायो ||७||

हिंसा पुनि झुठ जु चोरी, पर वनिता सों दृग-जोरी |
आरंभ-परिग्रह भीनो, पन-पाप जु या-विधि कीनो ||८||

सपरस-रसना-घ्रानन को, चखु-कान-विषय-सेवन को |
बहु-करम किये मनमाने, कछु न्याय-अन्याय न जाने ||९||

फल पंच-उदंबर खाये, मधु-मांस-मद्य चित चाये |
नहिं अष्ट-मूलगुण धारे, सेये कुव्यसन दु:खकारे ||१०||

दुइबीस-अभख जिन गाये, सो भी निश-दिन भुंजाये |
कछु भेदाभेद न पायो,ज्यों-त्यों करि उदर भरायो ||११||

अनंतानुबंधी जु जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो |
संज्वलन चौकड़ी गुनिये,सब भेद जु षोडश मुनिये ||१२||

परिहास-अरति-रति-सोग, भय-ग्लानि-तिवेद-संयोग |
पनबीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम ||१३||

निद्रावश शयन कराई, सुपने-मधि दोष लगाई |
फिर जागि विषय-वन धायो, नानाविध विष-फल खायो ||१४||

आहार-विहार-निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा |
बिन देखे धरी-उठाई, बिन-शोधी वस्तु जु खाई ||१५||

तब ही परमाद सतायो, बहुविधि-विकलप उपजायो |
कछु सुधि-बुधि नाहिं रही है, मिथ्यामति छाय गई है ||१६||

मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहु में दोष जु कीनी |
भिन-भिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञान-विषै सब पइये ||१७||

हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशि विराधी |
थावर की जतन न कीनी, उर में करुणा नहिं लीनी ||१८||

पृथिवी बहु-खोद कराई, महलादिक जागाँ चिनाई |
पुनि बिन-गाल्यो जल ढोल्यो, पंखा ते पवन बिलोल्यो ||१९||

हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी |
ता-मधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा ||२०||

हा हा! परमाद-बसाई, बिन देखे अगनि जलाई |
ता-मध्य जीव जे आये, ते हू परलोक सिधाये ||२१||

बीध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन-सोधि जलायो |
झाड़ू ले जागां बुहारी, चींटी आदिक जीव बिदारी ||२२||

जल-छानि जिवानी कीनी, सो हू पुनि डारि जु दीनी ।
नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया-बिन पाप उपाई ।।२३।।

जल-मल मोरिन गिरवायो, कृमि-कुल बहुघात करायो |
नदियन-बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये ||२४||

अन्नादिक शोध कराई, तामें जु जीव निसराई |
तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया ||२५||

पुनि द्रव्य-कमावन काजे, बहु आरंभ-हिंसा साजे |
किये तिसनावश अघ भारी, करुणा नहिं रंच विचारी ||२६||

इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने श्री भगवंता |
संतति चिरकाल उपाई, वाणी तें कहिय न जाई ||२७||

ताको जु उदय अब आयो, नानाविध मोहि सतायो |
फल भुंजत जिय दु:ख पावे, वच तें कैसे करि गावे ||२८||

तुम जानत केवलज्ञानी, दु:ख दूर करो शिवथानी |
हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है ||२९||

इक गाँवपती जो होवे, सो भी दु:खिया दु:ख खोवे |
तुम तीन-भुवन के स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी ||३०||

द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता-प्रति कमल रचायो |
अंजन से किये अकामी, दु:ख मेटो अंतरजामी ||३१||

मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपना विरद सम्हारो |
सब दोष-रहित करि स्वामी, दु:ख मेटहु अंतरजामी ||३२||

इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ |
रागादिक-दोष हरीजे, परमातम निज-पद दीजे ||३३||

(दोहा)

दोष-रहित जिनदेव जी, निज-पद दीज्यो मोय |
सब जीवनि के सुख बढ़े, आनंद-मंगल होय ||
अनुभव-माणिक-पारखी, ‘जौहरि’ आप जिनंद |
ये ही वर मोहि दीजिए, चरण-शरण-आनंद ||

(अनित्य भावना)

राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार |
मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ||१||

(अशरण भावना)
दल-बल देवी-देवता, मात-पिता-परिवार |
मरती-बिरिया जीव को, कोई न राखनहार ||२||

(संसार भावना)
दाम-बिना निर्धन दु:खी, तृष्णावश धनवान |
कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ||३||

(एकत्व भावना)
आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय |
यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय ||४||

(अन्यत्व भावना)
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय |
घर-संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||५||

(अशुचि भावना)
दिपे चाम-चादर-मढ़ी, हाड़-पींजरा देह |
भीतर या-सम जगत् में, अवर नहीं घिन-गेह ||६||

(आस्रव भावना)
मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा |
कर्म-चोर चहुँ-ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ||७||

(संवर भावना)
सतगुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमे |
तब कछु बने उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें ||

(निर्जरा भावना)

ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधें भ्रम-छोर |
या-विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब-चोर ||८||

पंच-महाव्रत संचरण, समिति पंच-परकार |
प्रबल पंच-इन्द्रिय-विजय, धार निर्जरा सार ||९||

(लोक भावना)

चौदह राजु उतंग नभ, लोक-पुरुष-संठान |
तामें जीव अनादि तें, भरमत हैं बिन-ज्ञान ||१०||

(बोधिदुर्लभ भावना)

धन-कन-कंचन राज-सुख, सबहि सुलभकर जान |
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ-ज्ञान ||११||

(धर्म भावना)

जाँचे सुर-तरु देय सुख, चिंतत चिंतारैन |
बिन जाँचे बिन चिंतये, धर्म सकल-सुख देन ||१२||


वंदूँ श्री अरिहंतपद, वीतराग विज्ञान |
वरणूँ बारह भावना, जग-जीवन-हित जान ||१||

(विष्णुपद छंद)

कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरतखंड सारा |
कहाँ गये वह राम-रु-लक्ष्मण, जिन रावण मारा ||
कहाँ कृष्ण-रुक्मिणि-सतभामा, अरु संपति सगरी |
कहाँ गये वह रंगमहल अरु, सुवरन की नगरी ||२||

नहीं रहे वह लोभी कौरव, जूझ मरे रन में |
गये राज तज पांडव वन को, अगनि लगी तन में ||
मोह-नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को |
हो दयाल उपदेश करें गुरु, बारह-भावन को ||३||

१. अनित्य भावना

सूरज-चाँद छिपे-निकले, ऋतु फिर-फिर कर आवे |
प्यारी आयु ऐसी बीते, पता नहीं पावे ||
पर्वत-पतित-नदी-सरिता-जल, बहकर नहिं डटता |
स्वांस चलत यों घटे, काठ ज्यों आरे-सों कटता ||४||

ओस-बूँद ज्यों गले धूप में, वा अंजुलि-पानी |
छिन-छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ||
इंद्रजाल आकाश-नगर-सम, जग-संपत्ति सारी |
अथिररूप संसार विचारो, सब नर अरु नारी ||५||

२. अशरण भावना

काल-सिंह ने मृग-चेतन को, घेरा भव-वन में |
नहीं बचावन-हारा कोई, यों समझो मन में ||
मंत्र-यंत्र-सेना-धन-संपत्ति, राज-पाट छूटे |
वश नहिं चलता काल-लुटेरा, काय-नगरि लूटे ||६||

चक्ररत्न हलधर-सा भाई, काम नहीं आया |
एक तीर के लगत कृष्ण की, विनश गई काया ||
देव-धर्म-गुरु शरण जगत् में, और नहीं कोई |
भ्रम से फिरे भटकता चेतन, यों ही उमर खोई ||७||

३. संसार भावना

जनम-मरण अरु जरा-रोग से, सदा दु:खी रहता |
द्रव्य-क्षेत्र-अरु-काल-भाव-भव, परिवर्तन सहता ||
छेदन-भेदन नरक-पशुगति, वध-बंधन सहता |
राग-उदय से दु:ख सुरगति में, कहाँ सुखी रहता ||८||

भोगि पुण्यफल हो इकइंद्री, क्या इसमें लाली |
कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली ||
मानुष-जन्म अनेक विपतिमय, कहीं न सुख देखा |
पंचमगति सुख मिले, शुभाशुभ को मेटो लेखा ||९||

४. एकत्व भावना

जन्मे-मरे अकेला चेतन, सुख-दु:ख का भोगी |
और किसी का क्या इक दिन यह, देह जुदी होगी ||
कमला चलत न पैंड, जाय मरघट तक परिवारा |
अपने-अपने सुख को रोवे, पिता-पुत्र-दारा ||१०||

ज्यों मेले में पंथीजन मिल, नेह फिरें धरते |
ज्यों तरुवर पे रैनबसेरा, पंछी आ करते ||
कोस कोई दो कोस कोई उड़, फिर थक-थक हारे |
जाय अकेला हंस संग में, कोई न पर मारे ||११||

५. अन्यत्व भावना

मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या-जल चमके |
मृग-चेतन नित भ्रम में उठ-उठ, दौड़े थक-थक के ||
जल नहिं पावे प्राण गमावे, भटक-भटक मरता |
वस्तु-पराई माने अपनी, भेद नहीं करता ||१२||

तू चेतन अरु देह-अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी |
मिले अनादि यतन तें बिछुडे़, ज्यों पय अरु पानी ||
रूप तुम्हारा सब सों न्यारा, भेदज्ञान करना |
जौलों पौरुष थके न तौलों, उद्यम सों चरना ||१३||

६. अशुचि भावना

तू नित पोखे यह सूखे ज्यों, धोवे त्यों मैली |
निश-दिन करे उपाय देह का, रोग-दशा फैली ||
मात-पिता-रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी |
मांस-हाड़-नस-लहू-राध की, प्रगट-व्याधि घेरी ||१४||

काना-पौंडा पड़ा हाथ यह, चूसे तो रोवे |
फले अनंत जु धर्मध्यान की, भूमि-विषै बोवे ||
केसर-चंदन-पुष्प सुगन्धित-वस्तु देख सारी |
देह-परस तें होय अपावन, निशदिन मल जारी ||१५||

७. आस्रव भावना

ज्यों सर-जल आवत मोरी, त्यों आस्रव कर्मन को |
दर्वित जीव-प्रदेश गहे जब पुदगल-भरमन को ||
भावित आस्रवभाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को |
पाप-पुण्य के दोनों करता, कारण-बंधन को ||१६||

पन-मिथ्यात योग-पंद्रह, द्वादश-अविरत जानो |
पंच ‘रु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मानो ||
मोह-भाव की ममता टारें, पर-परणति खोते |
करें मोख का यतन निरास्रव, ज्ञानीजन होते ||१७||

८. संवर भावना

ज्यों मोरी में डाट लगावे, तब जल रुक जाता |
त्यों आस्रव को रोके संवर, क्यों नहिं मन लाता ||
पंच-महाव्रत समिति गुप्ति कर, वचन-काय-मन को |
दशविध-धर्म परीषह-बाईस, बारह-भावन को ||१८||

यह सब भाव सतावन मिलकर, आस्रव को खोते |
सुपन-दशा से जागो चेतन, कहाँ पड़े सोते ||
भाव शुभाशुभ-रहित शुद्ध, भावन-संवर पावे |
डाट लगत यह नाव पड़ी, मँझधार पार जावे ||१९||

९. निर्जरा भावना

ज्यों सरवर-जल रुका सूखता, तपन पड़े भारी |
संवर रोके कर्म निर्जरा, ह्वे सोखनहारी ||
उदयभोग सविपाक-समय, पक जाय आम डाली |
दूजी है अविपाक पकावे, पालविषैं माली ||२०||

पहली सबके होय, नहीं कुछ सरे काम तेरा |
दूजी करे जु उद्यम करके, मिटे जगत्-फेरा ||
संवर-सहित करो तप प्रानी, मिले मुकति-रानी |
इस दुलहिन की यही सहेली, जाने सब ज्ञानी ||२१||

१०. लोक भावना

लोक-अलोक-अकाश माँहिं, थिर निराधार जानो |
पुरुष-रूप कर-कटी धरे, षट्-द्रव्यन सों मानों ||
इसका कोई न करता-हरता, अमिट-अनादी है |
जीव ‘रु पुद्गल नाचें या में, कर्म-उपाधी है ||२२||

पाप-पुण्य सों जीव जगत् में, नित सुख-दु:ख भरता |
अपनी करनी आप भरे, सिर औरन के धरता ||
मोह-कर्म को नाश, मेटकर सब जग की आशा|
निज-पद में थिर होय, लोक के शीश करो बासा ||२३||

११. बोधि-दुर्लभ भावना

दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु त्रसगति पानी |
नर-काया को सुरपति तरसे, सो दुर्लभ प्रानी ||
उत्तम-देश सुसंगति दुर्लभ, श्रावक-कुल पाना |
दुर्लभ-सम्यक् दुर्लभ-संयम, पंचम-गुणठाना ||२४||

दुर्लभ रत्नत्रय-आराधन, दीक्षा का धरना |
दुर्लभ मुनिवर के व्रत-पालन, शुद्धभाव करना ||
दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधिज्ञान पावे |
पाकर केवलज्ञान नहीं फिर, इस भव में आवे ||२५||

१२. धर्म भावना

धर्म ‘अहिंसा परमो धर्म:’, ही सच्चा जानो |
जो पर को दु:ख दे सुख माने, उसे पतित मानो ||
राग-द्वेष-मद-मोह घटा, आतम-रुचि प्रकटावे |
धर्म-पोत पर चढ़ प्राणी भव-सिन्धु पार जावे ||२६||

वीतराग-सर्वज्ञ दोष-बिन, श्रीजिन की वानी |
सप्त-तत्त्व का वर्णन जा में, सबको सुखदानी ||
इनका चिंतवन बार-बार कर, श्रद्धा उर-धरना |
‘मंगत’ इसी जतन तें इकदिन, भव-सागर तरना ||२७||

प्रभु पतित पावन मैं अपावन, चरण आयो सरन जी |

यों विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरन जी ||(1)

तुम न पिछान्यो आन मान्यो, देव विविध प्रकार जी |

या बुद्धि सेती निज ना जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी ||(2)

भव विकट वन में करम बैरी, ज्ञान धन मेरो हरयो |

तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होए, अनिष्ट गति धरतो फिरयो ||(3)

धन घड़ी यो धन दिवस यो ही, धन जनम मेरो भयो |

अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभु जी को लख लयो ||(4)

छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा पै धरैं |

वसु प्रातिहार्य अनंत गुण जुत, कोटि रवि छवि को हरैं ||(5)

मिट गयो तिमिर मिथ्यात मेरो, उदय रवि आतम भयो |

मो उर हरष ऐसो भयो, मनु रंक चिंतामणि लयो ||(6)

मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, वीनऊँ तुव चरन जी |

सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहु तारन तरन जी ||(7)

जाचूँ नहीं सुरवास पुनि, नर राज परिजन साथ जी |

‘बुध’ जाचहूँ तुव भक्ति भव भव, दीजिये शिवनाथ जी ||(8)